Monday, October 1, 2018

मशहूर है हिमाचल प्रदेश के मलाणा गांव की हशीश

पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल हरबख़्श सिंह ने लिखा, "युद्ध का सबसे बड़ा फ़ैसला (लाहौर की तरफ़ बढ़ना), सबसे छोटे कद के शख़्स ने लिया." इस पूरी लड़ाई में शास्त्री विपक्षी नेताओं और भारत के सभी लोगों को साथ ले कर चलने की कोशिश कर रहे थे.
उनके बेटे अनिल शास्त्री याद करते हैं, "लड़ाई के दौरान उस समय अमरीका के राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्री जी को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, वो बंद कर देंगे. उस समय हमारे देश में इतना गेहूँ नहीं पैदा होता था. शास्त्री जी को ये बात बहुत चुभी क्योंकि वो एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे."
इसके बाद ही शास्त्री ने देश वासियों ने कहा कि हम हफ़्ते में एक समय भोजन नहीं करेंगे. इसकी वजह से अमरीका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी.
अनिल शास्त्री याद करते हैं, "लेकिन उस अपील से पहले उन्होंने मेरी माँ ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम खाना न बने. मैं कल देश वासियों से कल एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ. मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं. जब उन्होंने देख लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं. तब उन्होंने देश वासियों से भी ऐसा करने के लिए कहा."
कच्छ टू ताशकंद किताब लिखने वाले फ़ारूख़ बाजवा के मुताबिक भारत सरकार के दूसरे अंगों में कुछ ने बेहतर काम किया तो कुछ ने मामूली. रक्षा और विदेश मंत्रालय ढ़ंग से चलाए गए लेकिन अगर ये कहा जाए कि दोनों जगह असाधारण काम किया गया, तो ये भी ग़लतबयानी होगी.
भारतीय विदेश मंत्रालय की ख़ास तौर पर इसलिए आलोचना हुई कि लड़ाई के दौरान दुनिया के बहुत कम देश खुलेआम भारत के समर्थन में उतरे.
सैनिक टीकाकारों ने भारत की रणनीति को भी आड़े हाथों लिया. उनका तर्क था कि भारत चाहता तो पूर्वी पाकिस्तान पर हमला कर पाकिस्तान को और अधिक दबाव में डाल सकता था. लेकिन शायद चीन के युद्ध में शामिल होने के डर ने भारत को ऐसा करने से रोक दिया.
जब लड़ाई के अंतिम चरण पर युद्ध विराम करने का दबाव बन रहा था तो प्रधानमंत्री शास्त्री ने सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी से पूछा था कि क्या भारत को लड़ाई जारी रखने में फ़ायदा है?
उन्होंने लड़ाई ख़त्म करने की सलाह दी थी क्योंकि उनकी नज़र में भारत का असलाह ख़त्म हो चला था जबकि वास्तविकता ये थी कि भारत के सिर्फ़ 14 फ़ीसदी हथियार ही तब तक इस्तेमाल हुए थे.
लद्दाख के दूर-दराज अंचल में बसे करीब 5 हज़ार ब्रोकपा खुद को दुनिया के आखिरी बचे हुए शुद्ध आर्य मानते हैं. क्या यह वाकई वो जाति है जिसे नाज़ी 'मास्टर रेस' मानते थे? या फिर ये दावा सिर्फ़ मिथक है जिसे बरक़रार रखना इन लोगों के लिए फ़ायदे का सौदा है.
हमारे दौर की सबसे चर्चित युद्धभूमि को करीब से देखने का उत्साह सफर को बोझिल नहीं होने देता.
लेह से उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते हुए पहला ख्याल करगिल का ही आता है लेकिन बीबीसी की टीम इस सड़क पर कुछ और ढूंढने निकली थी.
करीब 4 घंटे तक लेह से बटालिक तक का रास्ता बिल्कुल हाइवे जैसा है. इसके बाद सड़क तंग होकर सिंधु नदी का किनारा पकड़ लेती है.
कहीं कच्चे, कहीं पक्के रास्ते पर तकरीबन दो घंटे और चलने के बाद आप गारकोन गांव पहुंचते हैं.
गांव से ठीक पहले बियामा में आपका ध्यान सबसे पहले 2015 में आई बाढ़ में डूबे घरों की ओर जाता है.
नंगे, पथरीले पहाड़ों पर हरे पैबंद जैसे खेत स्थानीय लोगों की मेहनत भरी ज़िंदगी की गवाही देते हैं लेकिन इस जगह की सबसे बड़ी ख़ासियत खुद ये लोग हैं.
गारकोन के बच्चे, बूढ़े और जवान अब शहरी दिखने वाले लोगों को देखकर हैरान नहीं होते. वे अच्छी तरह जानते हैं कौन सी जिज्ञासा उन्हें यहां खींचकर लाई है.
गांव के किसी भी शख्स से 5 मिनट की बातचीत भी आपको इस सवाल तक ले ही आती है. चंडीगढ़ में पढ़ाई कर रही सोनम ल्हामो बताती हैं कि शुद्ध आर्य होने की बात उनके समुदाय में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है.
वो कहती हैं, "आपने पढ़ा होगा आर्य लंबे और गोरे होते थे. आप यहां की आबादी में भी यही बात देख सकते हैं. हम लोग भी प्रकृति की पूजा करते हैं. हम अपने कल्चर को ही अपने प्योर आर्यन होने का सबसे बड़ा सुबूत मानते हैं."
ये देखा जा सकता है कि बियामा, गारकोन, दारचिक, दाह और हानू के लोगों की शक्लें बाकी लद्दाखियों के मंगोल नैन-नक्श से अलग हैं.
ब्रोकपा नाम उन्हें लद्दाख की बाकी आबादी की ओर से ही मिला है. स्थानीय भाषा में इसका मतलब घुमंतु होता है.
बौद्ध होने के बावजूद ब्रोकपा देवी-देवताओं में यकीन करते हैं और आग जैसी कुदरती ताकतों को पूजते हैं. बलि देने की प्रथा भी अब तक ज़िंदा है हालांकि आज की पीढ़ी में उसका विरोध होने लगा है.
आग और प्रकृति की दूसरी ताकतों को पूजने और बलि देने का ज़िक्र वेदों में भी मिलता है.
हालांकि, ब्रोकपा संस्कृति में बकरियों को गायों से ज़्यादा ऊंचा दर्जा हासिल है. बदलते वक्त के साथ कहीं-कहीं अब गोवंश नज़र आने लगा है लेकिन बकरी का दूध और घी अब भी इन लोगों की पहली पसंद है.
ज़ाहिर है, बाकी लद्दाखी संस्कृति से अलग होना ही उनका शुद्ध आर्य का सुबूत नहीं हो सकता.
इसी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले स्वांग गैलसन करगिल के कॉलेज में पढ़ाते हैं. उनकी दिलचस्पी अपने इतिहास की तह तक जाने में है.
वो बताते हैं, 'कई इतिहासकारों ने इस बात के संकेत दिए हैं. मसलन, जर्मन विशेषज्ञ एएच फ्रैंकी ने अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न तिब्बत' में हमारी आबादी को आर्यन स्टॉक का नाम दिया है.'
हाल ही में अपनी भाषा का शब्दकोश छपवा चुके गैलसन संस्कृत के साथ उनकी भाषा की समानताएं भी गिनवाते हैं.
उनके मुताबिक, 'बाकी लद्दाखी भाषाओं से इतर हमारी ज़ुबान में संस्कृत के कई शब्द मिलते हैं.
उदाहरण के लिए घोड़े के लिए अश्व, सूरज के लिए सूर्य आदि. यही बात हम अंकों के बारे में भी कह सकते हैं.'
गैलसन के मुताबिक एक मिथक ये भी है कि उनका समुदाय सम्राट सिकंदर के सैनिकों का वशंज हैं हालांकि पाकिस्तान की कलाश जाति, हिमाचल प्रदेश में मलाणा और बड़ा भंगाल इलाके के लोग भी कुछ ऐसा ही दावा करते हैं.रोकपा लोकगीतों में इस बात का ज़िक्र मिलता है कि उनके पूर्वज करीब सातवीं सदी में गिलगित-बलतिस्तान से आकर बटालिक के आसपास के इलाकों में बसे होंगे.
उनका सबसे बड़ा त्योहार अक्टूबर में फसल कटाई के वक्त मनाया जाने वाला बोनोना है.
हर ब्रोकपा गांव बारी-बारी से इसे आयोजित करता है. एक साल पाकिस्तान की ओर बसे उनके गांव गनोक के लिए भी छोड़ा जाता है.
हालांकि, ये कहना मुश्किल है कि उस ओर इस परंपरा को अब भी निभाया जाता है या नहीं.

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